हो काल गति से परे चिरंतन, अभी यहाँ थे अभी यही हो। कभी धरा पर कभी गगन में, कभी कहाँ थे कभी कहीं हो। तुम्हारी राधा को भान है तुम, सकल चराचर
तुम जलाकर दिये, मुँह छुपाते रहे, जगमगाती रही कल्पना रात जाती रही, भोर आती रही, मुसकुराती रही कामना चाँद घूँघट घटा का उठाता रहा द्वार घर का पवन खटखटाता रहा पास आते
Moreकितने रास्ते तय करे आदमी कि तुम उसे इनसान कह सको ? कितने समंदर पार करे एक सफेद कबूतर कि वह रेत पर सो सके ? हाँ, कितने गोले दागे तोप कि
Moreहर तरफ धुआँ है हर तरफ कुहासा है जो दाँतों और दलदलों का दलाल है वही देशभक्त है अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है – तटस्थता यहाँ कायरता के चेहरे पर
Moreछोटे से आंगन में माँ ने लगाए हैं तुलसी के बिरवे दो पिता ने उगाया है बरगद छतनार मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दूँ! मुट्ठी में प्रश्न लिए दौड़ रहा हूं
Moreधूप कोठरी के आइने में खड़ी हँस रही है पारदर्शी धूप के पर्दे मुस्कराते मौन आँगन में मोम-सा पीला बहुत कोमल नभ एक मधुमक्खी हिलाकर फूल को बहुत नन्हा फूल उड़ गई
Moreउधर के चोर भी अजीब हैं लूट और डकैती के अजीबो-गरीब किस्से – कहते हैं ट्रेन-डकैती सात बजते-बजते संपन्न हो जाती है क्योंकि डकैतों को जल्दी सोने की आदत है और चूँकि
Moreन जाने हुई बात क्या मन इधर कुछ बदल-सा गया है मुझे अब बहुत पूछने तुम लगी हो उधर नींद थी इन दिनों तुम जगी हो यही बात होगी अगर कुछ न
More1. तुम्हें सौगंध है, मेरे क़ातिल प्रेम करने के लिए नादान होना उतना ही है आवश्यक जितना कि जीवित रहने के लिए उम्मीद का होना। तुम्हारे खंजर से टपकते मेरे लहू की
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