थोड़ा-सा

अगर बच सका तो वही बचेगा हम सबमें थोड़ा-सा आदमी– जो रौब के सामने नहीं गिड़गिड़ाता, अपने बच्चे के नंबर बढ़वाने नहीं जाता मास्टर के घर, जो रास्ते पर पड़े घायल को

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शाम को जिस वक़्त

शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है जाने किस उम्मीद में फिर

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