तुम्हारी आवाज़ की उँगली पकड़े मैं करती हूँ यात्रा अधैर्य से धैर्य की आक्रोश से प्रेम की उद्वेग से शांति की विषम से सम की तुम्हारी आवाज़ के आरोह-अवरोह में समा जाते
तुम नहीं थे एक ख़ालीपन था गहरे पग-चिह्न लिए दूर तक रेत थी और कुछ भी नहीं था जहाँ मैं थी वहाँ मैं नहीं थी बची हुई नमी लिए लुप्त होती एक
Moreतुम्हारी आवाज़ की उँगली पकड़े मैं करती हूँ यात्रा अधैर्य से धैर्य की आक्रोश से प्रेम की उद्वेग से शांति की विषम से सम की तुम्हारी आवाज़ के आरोह-अवरोह में समा जाते
Moreप्रेम का ज्वार सूख रहा है अंदर इस गोलार्ध पर प्रेम गोमेद रत्न हैयाकि गोपनीय उल्लास का कोई द्वार जिससे होकर प्रेम गोश फ़रमाता है चित-पट जिस करवट भी बैठो प्रेम आ
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