1. कानपुर सामने आँगन में फैली धूप सिमटकर दीवारों पर चढ़ गई और कंधे पर बस्ता लटकाए नन्हे-नन्हे बच्चों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए, तो एकाएक ही मुझे समय का आभास हुआ। घंटा
नईम टहलता टहलता एक बाग़ के अन्दर चला गया… उसको वहां की फ़ज़ा बहुत पसंद आई। घास के एक तख़्ते पर लेट कर उसने ख़ुद कलामी शुरू कर दी। “कैसी पुरफ़िज़ा जगह
Moreइस बात में शक की कोई गुंजाइश नहीं। वह मकान वेश्यागृह ही था। मन्दिर नहीं था। धर्मशाला भी नहीं। शमशाद ने कहा था – तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी। सोने के लिए
Moreगाड़ी के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट पर बैठे सरदार जी देर से मुझे लाम के किस्से सुनाते रहे थे। वह लाम के दिनों में बर्मा की लड़ाई
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