सिक्का बदल गया

खद्दर की चादर ओढ़े, हाथ में माला लिए शाहनी जब दरिया के किनारे पहुंची तो पौ फट रही थी। दूर-दूर आसमान के परदे पर लालिमा फैलती जा रही थी। शाहनी ने कपड़े

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मेरी पहली रचना

उस वक्त मेरी उम्र कोई १३ साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढ़ने-लिखने का उन्माद था। मौलाना शरर, पं० रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मुहम्मद अली

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काकी

उस दिन बड़े सबेरे जब श्यामू की नींद खुली तब उसने देखा – घर भर में कुहराम मचा हुआ है। उसकी काकी – उमा – एक कम्बल पर नीचे से ऊपर तक

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फ़ैसला

उन दिनों हीरालाल और मैं अक्सर शाम को घूमने जाया करते थे। शहर की गलियाँ लाँघ कर हम शहर के बाहर खेतों की ओर निकल जाते थे। हीरालाल को बातें करने का

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पच्चीस चौका डेढ़ सौ

पहली तनख्वाह के रुपये हाथ में थामे सुदीप अभावों के गहरे अंधकार में रोशनी की उम्मीद से भर गया था। एक ऐसी खुशी उसके जिस्म में दिखाई पड़ रही थी, जिसे पाने

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वापसी

गजाधर बाबू ने कमरे में जमा सामान पर एक नजर दौड़ाई – दो बक्से, डोलची, बालटी – ‘यह डिब्‍बा कैसा है, गनेशी?’ उन्‍होंने पूछा। गनेशी बिस्‍तर बाँधता हुआ, कुछ गर्व, कुछ दुख,

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इस हमाम में

आज उसकी घंटी नहीं बजी, न ही आवाज़ सुनाई दी। रोज सुबह दरवाज़े के बाहर से उसकी आवाज़ सुनाई पड़ती – ‘बाई, कचरा!’ इसी तर्ज़ में वह यानी अंजा हमारे लम्बे कॉरीडोर

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दो पन्ने

रोशनदान से झांकती ज़िंदगी अगर दरवाज़े से आ जाती तो वो मज़ा ना आता। धीरे-धीरे धूप का दीवारों पर चढ़ना फिर ताप को बढ़ाना और अंत में छत को छूते हुए कमरे

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काठ का सपना

भरी, धुआँती मैली आग जो मन में है और कभी-कभी सुनहली आँच भी देती है। पूरा शनिश्‍चरी रूप। वे एक बालिका के पिता हैं, और वह बालिका एक घर के बरामदे की

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