1. कानपुर सामने आँगन में फैली धूप सिमटकर दीवारों पर चढ़ गई और कंधे पर बस्ता लटकाए नन्हे-नन्हे बच्चों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए, तो एकाएक ही मुझे समय का आभास हुआ। घंटा
उस पुरानी मेज के इर्द-गिर्द हम चार-पांच लोग बैठे बतिया रहे थे। बात सतही तौर पर राजनीति से शुरू होती थी और बाजार भावों पर आकर अटक जाती थी। आप जानते ही
Moreमैं कूर्सकी रेलवे स्टेशन पहुँचा जहाँ से ठीक नौ बजे सिम्फिरापोल्स्की एक्सप्रेस ट्रेन को छूटना था। टी.टी. ने मेरा टिकट देखा और मैं डिब्बे में घुस गया। वहाँ पहले से ही एक
Moreमैं अपने दोस्त के पास बैठा था। उस वक़्त मेरे दिमाग़ में सुक़्रात का एक ख़याल चक्कर लगा रहा था— क़ुदरत ने हमें दो कान दिये हैं और दो आंखें मगर ज़बान
Moreशादी की रात बिल्कुल वह न हुआ जो मदन ने सोचा था। जब चकली भाभी ने फुसला कर मदन को बीच वाले कमरे में धकेल दिया तो इंदू सामने शाल में लिपटी
Moreमुझे नृत्य नहीं आता था। रुचि भी नहीं थी। मैंने ऐसा ही कहा था। वह बोला – आता मुझे भी नहीं है। मैंने सोचा बात खत्म है। उसने हाथ में पकड़ी मोमबत्ती
Moreमरने से एक दिन पहले तक उसे अपनी मौत का कोई पूर्वाभास नहीं था। हाँ, थोड़ी खीझ और थकान थी, पर फिर भी वह अपनी जमीन के टुकड़े को लेकर तरह-तरह की
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