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भारत में राजद्रोह कानून की ज़रूरत; कितनी सही-कितनी ग़लत?

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Sedition Law In India

1949 में जब भारत ने अपना संविधान अपनाया और 1950 में इसे लागू किया गया, तब यह किसी अनजाने भरोसे की तरह था। हैरानी की बात है कि 70 सालों से ज़्यादा बीत गये पर हम आज भी पहले की तरह अंधेरे में जी रहे हैं। हाल ही में राजद्रोह पर भारत के विधि आयोग की रिपोर्ट इसकी ताज़ा मिसाल है। रिपोर्ट, राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल, भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए को बनाए रखने और उसमें सजा को बढ़ाने की वकालत करती है। राजद्रोह के क़ानून को अगर लागू किया गया, तो देश उन्नीसवीं सदी के आखिर में वापस वहीं पहुँच जाएगा जब राजद्रोह को पहली बार दंड संहिता में शामिल किया गया था।

सरकार के खिलाफ “शांति व्यवस्था भड़काने” वालों से निपटने के लिए, ब्रिटिश सरकार ने 1870 में दंड विधान में राजद्रोह को दोबारा से शामिल किया। 1897 में, एम.डी. चाल्मर्स ने राजद्रोह के कानून को पूरी तरह से नया रूप देने के लिए एक विधेयक पेश किया, जो बाद में कड़े न्यायिक व्याख्याओं के कारण बहुत सख़्त हो गया।

राजद्रोह की घोषणा करना और उसे दंडित करना चाल्मर्स के लिए ख़ासा एहम था। वह औपनिवेशिक नागरिकों को अपना ग़ुलाम बनाना चाहता था। भारत और इंग्लैंड में राजद्रोह के नियम मुख़्तलिफ़ थे। बक़ौल चाल्मर्स, “इंग्लैंड में जिस भाषा को बर्दाश्त किया जा सकता है, उसे भारत में बर्दाश्त करना जोखिम भरा है।” उसका मानना था कि भारत में अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार बारूद के पास सिगार पीने जैसा है। उसके नस्लवादी और साम्राज्यवादी नज़रिए ने भारत में राजद्रोह की परिभाषा को पहली बार तय किया।

तीन साल के लिए बनाया गया 22वां विधि आयोग, फरवरी 2020 से नवंबर 2022 तक तो अस्तित्व में था भी नहीं। कार्यकाल के अंत में, कर्नाटक उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रितु राज अवस्थी को अध्यक्ष बनाया गया। यह उनकी सेवानिवृत्ति के बाद की नौकरी थी, जिसको ले कर काफ़ी विवाद भी हुआ। अवस्थी ने कर्नाटक हिजाब प्रतिबंध मामले में फैसला सुनाने वाली पीठ की अगुवाई की थी। इन सब के बावजूद, आयोग का कार्यकाल अगस्त 2024 तक बढ़ा दिया गया। इन दिनों, यह समान नागरिक संहिता पर सिफारिशें तैयार कर रहा है। भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में यह वादा कई सालों से शामिल है।

मौजूदा आयोग ने अब तक सिर्फ़ तीन रिपोर्ट प्रकाशित की हैं। यह आँकड़ा बहुत कम है। इनमें विवादित राजद्रोह कानून को बनाए रखने की सिफारिश करने वाली 279वीं रिपोर्ट भी शामिल है। औपनिवेशिक काल के दौरान भारत के बड़े राष्ट्रवादी नेताओं ने इसका कड़ा विरोध किया था। इसकी आलोचना आज तक हो रही है। मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 124 ए के अमल पर रोक लगा दी। यह कानून किसी भी ऐसे काम के लिए सज़ा तय करता है जो “स्थापित व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह” को बढ़ावा दे सकता है।

विधि आयोग के प्रस्तावित संशोधन, राजद्रोह की व्याख्याओं को, फिर से पेश करने की कोशिश करते हैं। ये वही व्याख्याएं हैं जिन्हें अदालतों ने दरकिनार कर दिया था। अदालतों ने यह नागरिकों के हित में किया था। यह उनके भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के लिए था। चाल्मर्स ने अपनी व्याख्या में जोगेंद्र चंद्र बोस के फैसले को आधार माना। असंतोष के कई रूप सामने आए हैं, जैसे कि ‘नापसंद’, ‘घृणा’, ‘अवमानना’ और ‘दुर्भावना’। बाल गंगाधर तिलक के मुकदमे में देशद्रोह को नाराज़गी के तौर पे समझा गया था। इस तरह के मामलों के लिए धारा 124 ए का नियम, अधिनियम 1898 का हिस्सा है।

विधि आयोग की सिफ़ारिश दरअसल एक मोनोलॉग है। यह पिछले कुछ वर्षों में हुई कई बहसों को अनदेखा करता है, जो राजद्रोह कानून से जुड़े मुख़्तलिफ़ पहलुओं की मनमानी को सामने लाता है। इसमें चाल्मर्स के विवादास्पद परिवर्तनों के साथ कई तरह की समानताएँ हैं जिसके तहत भारत को केदार नाथ सिंह के फ़ैसले के तर्क को “शामिल” करना चाहिए। इससे साफ़ हो जाता है कि केंद्र सरकार ने केदार नाथ सिंह के मामले में अच्छी तरह से विचार किया था। राजद्रोह की व्याख्या इस तथ्य को नजरअंदाज करती है। सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने भी उसी मामले में कहा था कि — अगर राजद्रोह कानून को व्यापक रूप से समझा जाए, तो यह “संविधान की कसौटी पर खरा नहीं उतर पाएगा”।

आयोग, उन लोगों के दंडित होने की संभावना बढ़ा देता है, जो हिंसा या सार्वजनिक व्यवस्था को भड़काने की प्रवृत्ति रखते हैं। यहाँ सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह हिंसा की घटना को साबित करे। इस में केदार नाथ सिंह के मामले को शामिल करने की सिफारिश की गई है, जो उन लोगों को सज़ा देती है जिनमें “हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था को भड़काने की प्रवृत्ति ” होती है। मार्च 2016 में, केंद्र सरकार ने इसे राज्यसभा में मंजूरी दी थी, जिससे राजद्रोह की परिभाषा और उसकी प्रवृत्तियों ने व्यापक रूप ले लिया।

विधि आयोग ने राजद्रोह पर विचार करने की जगह उसको नज़रअंदाज़ कर दिया। स्वतंत्र भारत में केदार नाथ सिंह का मामला पहला ऐसा मामला था जिसने यह माना कि राजद्रोह का क़ानून सार्वजनिक व्यवस्था और मौलिक अधिकारों के संतुलन के लिए जरूरी है। आयोग ने इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि सर्वोच्च न्यायालय ने “सार्वजनिक व्यवस्था” को कैसे समझा है। उसने संसदीय कार्यकारी के रूप में भी काम नहीं किया और राजद्रोह पर पिछले विपरीत न्यायिक फ़ैसलों को भी अनदेखा किया। इसके साथ ही, रोमेश थापर के मामले में जो छह जजों की बेंच ने फ़ैसला दिया था, उसे केदार नाथ सिंह के मामले में पांच जजों की बेंच ने असामान्य तरीके से बदल दिया।

धारा 124 ए में दी गई दंड की खासियतों पर ध्यान देते हुए, विधि आयोग ने पाँचवीं विधि आयोग की रिपोर्ट को उठाया, जिसमें राजद्रोह के लिए तय जेल की अवधि को ‘अजीब’ पाया। इसका मतलब है कि राजद्रोह के मामले में सजा या तो आजीवन की जेल होती थी या तीन साल की सजा (या केवल जुर्माना) थी। इसमें, आयोग ने सजा को आजीवन जेल या ‘सात साल तक’ की जेल सजा और जुर्माना के रूप में बदलने का सुझाव दिया है। यहाँ यह कहा गया कि अपराध की गंभीरता और सजा की गंभीरता को तय करने में अदालतों को अधिक लचीलापन मिलेगा। मगर यह साफ़ नहीं होता कि जेल की अवधि को तीन से बढ़ाकर सात साल क्यों किया जा रहा है।

बढ़ी हुई जेल की सजा का समर्थन करके, आयोग ने, न्याय के प्रति अपने प्रतिशोधात्मक दृष्टिकोण को दिखाया है। इस तरह के मामले व्यक्तिगत और सामाजिक बदलाव के लिए दण्ड न्याय प्रणाली की ज़रूरत को नजरअंदाज़ करते हैं। ध्यान रहे — राजद्रोह के मामले, सबसे पहले व्यक्ति के विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करते हैं।

रिपोर्ट राजद्रोह कानून के दुरुपयोग के आरोप से, राजनीतिक वर्ग को, आज़ाद करने की भी  कोशिश करती है। इसके बजाय, यहाँ कानून की व्याख्या का भार “पुलिस की राजनीतिक मिलीभगत” पर टिकी होती है। राजद्रोह के खुले दुरुपयोग को आज साफ़ तौर पर देखा जा सकता है, क्योंकि अब राज्य से बुनियादी मांगों को लेकर हो रहे विरोध प्रदर्शन और सड़क जाम करने वाले लोग भी राजद्रोह के दायरे में आ सकते हैं। आर्टिकल 14 की एक रिपोर्ट के तहत नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध के दौरान 25 राजद्रोह के मामले दर्ज किए गए थे; हाथरस गैंगरेप के बाद 22 मामले, किसान विरोध के दौरान 6 मामले और पुलवामा हमले के बाद 27 मामले दर्ज किए गए।

आयोग राजद्रोह को बरकरार रखने का तर्क तो देता है, लेकिन यह साफ़ नहीं करता कि इसका इस्तेमाल लोकतंत्र में सही रूप से हो रहा है या नहीं। यहाँ यह तो साफ़ है कि राजद्रोह को रोकने के लिए सरकारी मदद की जरूरत है, लेकिन यह समझने में मुश्किल होती है कि इसे लागू कैसे किया जाये। अब तक इस कानून के तहत कई गिरफ्तारियाँ हुई हैं, लेकिन आरोपों के साबित होने की दर बहुत कम है। आर्टिकल 14 की एक रिपोर्ट के अनुसार, राजद्रोह के 96% मामले तो 2014 में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद दर्ज किए गए थे; 2020 तक हर साल इसमें लगातार 28% की बढ़त देखी गई।

विधि आयोग की सिफारिशें सुप्रीम कोर्ट के दूसरे मामलों से अलग हैं, जहां राजद्रोह नियम के सख़्त पहलुओं से बचने की कोशिश की गई थी। एक तरफ़ जहां केदार नाथ सिंह मामले को अधर में लटका दिया गया, वहीं आयोग अब दोबारा से उसकी ओर ध्यान देने की कोशिश कर रहा है। इस तरह के विसंगतियाँ एक तरह का बेतुकापन पैदा करती है।

भारत में राजद्रोह कानून के लागू होने के बाद से एक पैटर्न सामने आया है। इस कानून का मक़सद लोगों की ज़िम्मेदारी को तय करना और असहमति को ख़त्म करना था। इसको बेहतर ढंग से समझने के लिए, हमें नस्लवाद और उपनिवेशवाद के ऐतिहासिक संदर्भ को, ध्यान में रखते हुए, इस कानून की व्याख्या करनी चाहिए।

राम नंदन मामले में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 200 लोगों की भीड़ को दिए गए, एक भाषण को लेकर, दी गई सजा को रद्द कर दिया। वादी ने उस भाषण में कहा था, “अत्याचारियों ने देश को नहीं बांटा, उल्टा जवाहरलाल नेहरू इतने बड़े देशद्रोही निकले कि उन्होंने देश को दो हिस्सों में बांट दिया।” इस मामले में, उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संविधान लागू होने के बाद राजद्रोह जैसी बातों का कोई मतलब नहीं रह गया है। इसमें पहले संविधान संशोधन बहस के दौरान नेहरू के भाषण का ज़िक्र किया गया, जिसमें राजद्रोह के नियम को उन्होंने “बहुत ज़्यादा आपत्तिजनक और घृणित” कानून बताया था; जिसकी “भारत की कानूनी प्रणाली में कोई जगह नहीं होनी चाहिए”।

आज भी यह व्यवस्था क़ायम है और चल रही है। वर्तमान सरकार की उपनिवेशवाद को ख़त्म करने की क़वायद मुश्किल लग रही है। इसकी एक वजह ये है कि नया कानून भी औपनिवेशिक समय के क़ानून जैसा ही दिखता है। संसद में गृह मंत्री अमित शाह ने इस व्यवस्था को ख़त्म करने का वादा तो किया था, लेकिन सिर्फ़ शाब्दिक तौर पर। इसकी भावना BNS (भारतीय न्याय संहिता) की धारा 152 के तहत अब भी बरकरार है, जो असहमति को दबाने के लिए इस्तेमाल की जा सकती है।

(यह लेख पहले ‘न्यूज़क्लिक’ में अंग्रेज़ी में प्रकाशित हुआ था और यहाँ लेखक की अनुमति से उसका अनुवाद किया गया है।
अनुवाद: कुमार राहुल )

Rishav
ऋषभ शर्मा

ऋषभ शर्मा पेशे से वक़ील है और इन दिनों दिल्ली में प्रैक्टिस कर रहे हैं। आप कई प्रमुख अखबारों और ऑनलाइन मीडिया प्लेटफार्मों पर स्वतंत्र स्तंभकार के रूप में भी लगातार अपनी बात रखते रहे हैं । इसके साथ ही आप ऑल इंडिया पीस सॉलिडैरिटी ऑर्गनाइजेशन के दिल्ली राज्य कार्यकारिणी सदस्य भी हैं। आपसे Adv.rishav09@gmail.com पे मेल द्वारा बात की जा सकती है।

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